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मंगलवार, 31 जनवरी 2012

मैं गांधी, जिसको लोग महात्मा कहते हैं



महात्मा गांधी के साथ श्री सुभाषचंद्र बोस  तथा जवाहर लाल नेहरू 


मैं गांधी, जिसको लोग महात्मा कहते हैं.
मैं रहा यूँ कि ज्यूँ आम नागरिक रहते हैं.
डरते थे  मुझको देख, फिरंगी बेचारे. 
जैसे बकरी का झुण्ड, शेर को देख डरे.

चंपारण मे है गाँव एक साठी नामक.
करते खेतों में वहां परिश्रम,लोग, अथक.
पर,अंग्रेजों के क्रूर लोभ का पार नहीं..
अपनी ज़मीन पर खेती का अधिकार नहीं.

मैंने बिहार के लोगो को संगठित किया.
पौरुष-परिपूर्ण अहिंसा का अभिमन्त्र दिया.
फिर, झारखंड के सिद्धो-कान्हो  के जैसा.
था असहयोग सब ओर, कड़कती बिजली सा.

 अंग्रेजों की दहशतगर्दी की नींव हिली. 
चंपारण के तूफां से रानी भी दहली.
भितिहरवा में आश्रम लोगो ने बना दिया.
छः माह वहीं मैंने आन्दोलन-यज्ञ किया.

मैंने चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन से.
सीखा था सविनय-अवज्ञान, अर्पित मन से.
नदिया में कोतवाल की आज्ञा को ठुकरा.
कीर्तन करता, प्रभु जी का था जुलूस निकला.

मैंने सीखा श्री रामायण - पारायण से.
सत्याग्रह का रणनीति-ज्ञान, रामायण से.
थे तीन दिनों तक राम स्वयं सत्याग्रह पर.
प्रार्थना-निरत सागर से, सागर के तट पर.

जब विनय नहीं माना समुद्र अभिमानी ने.
जब मार्ग नहीं छोड़ा सागर के पानी ने.
तब कमल-नयन के नयन,अग्नि से दहक उठे.
कोमल-शरीर श्री राम,सूर्य से भभक उठे.

मैं जीवन भर था रहा अहिंसा का साधक.
पर, कभी नहीं था शौर्य-प्रदर्शन में बाधक.
जो भय के कारण हिंसा को अपनाते हैं.
वे कभी वास्तविक वीर नहीं कहलाते हैं.

मैंने सुखदेव, भगत से अतिशय प्यार किया.
पर, उनकी हिंसा को भी अस्वीकार किया.
मैंने चाहा सुभाष, नेहरू के साथ चलें.
पर, दुःख ! सुभाष, रास्ते पर एकाकी निकले. 

चंपारण से जो शुरू हुआ था अश्वमेध.
वह पूर्ण हुआ सैंतालिस में कर,लक्ष्य-वेध.
भारत,स्वतंत्र हो उगा, सूर्य सा चमक उठा.
अपने हांथो में ही अब अपना शासन था.

 मैं एक बात अब दुःख से कहना चाहूंगा.
भितिहरवा के बारे में यह बतलाउगा.
वह दुनिया का पर्यटन केंद्र बन सकता था.
पिछड़ा बिहार, मुद्रा अर्जित कर सकता था.

अपने भारत के सफल राजनीतिग्य सभी.
भितिहरवा की यात्रा करते हैं नहीं कभी.
सबके मन में है भरा अंधविश्वास यही.
जो गया वहां,सत्ता-च्युत होगा शीघ्र वही.

मैंने सुन रखा है बिहार कुछ बदल रहा.
ईमान भरा है  एक व्यक्ति, इस वक्त वहां.
कोई उस तक मेरा सन्देश अगर दे दे.
विश्वास मुझे , शायद वह कुछ ना कुछ कर दे.
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मैं वर्ष  २००५  में चंपारण क्षेत्र का डी आई  जी था.
भितिहरवा आश्रम की तीर्थयात्रा पर मैं जब जाने लगा तो मुझसे मेरे एक सहकर्मी ने कहा ,
 'सर, वहां कोई साहब लोग नहीं जाते .कोई नेता भी नहीं जाता.वहां जाने से कुर्सी चली जाती है ..'
मै कुछ मुस्कुराया .फिर,कुछ रूककर कहा ,' चलो गांधी जी से ही पूछेंगे कि वे क्यों कुर्सी ले लेते हैं भितिहरवा दर्शनार्थियों की..वैसे मेरी कुर्सी भी छोटी ही है .चली भी जायेगी तो गांधी जी से जिद करके इससे बड़ी कुर्सी ले लेगे.'
मैंने वहां  की आगंतुक-पंजी में कुछ लिखा और देखा तो बरसों बरस तक के पृष्ठों मे किसी अधिकारी का आगंतुक के रूप में हस्ताक्षर नहीं मिला..
किसी राजनीतिग्य का भी..
श्री चंद्रशेखर जी का मैं सादर स्मरण कर रहा इस प्रसंग में क्योंकि वे भितिहरवा आश्रम गए थे और वहां कुछ निर्माण कार्य भी कराया था.
एक बात का उल्लेख ज़रूरी है..भितिहरवा आश्रम की यात्रा के कुछ ही दिनों बाद चंपारण क्षेत्र के डी आई जी पद से मेरा स्थानान्तरण हुआ. किन्तु , महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से, मैं मगध क्षेत्र (गया ) के डी आई जी पद पर पदस्थापित किया गया.. महात्मा गांधी की  अहिंसा-साधना की विचार-गंगोत्री बोधगया .. अमिताभ बुद्ध.. मेरा स्वप्न पूरा हुआ-बुद्ध के निकटतम रहने का..उस भूमि को प्रतिदन स्पर्श करने का जहां कभी राजकुमार सिद्धार्थ, ज्ञान-पिपासा से विकल होकर आये थे और परम ज्ञान प्राप्त कर सर्वव्यापी बुद्ध होकर लौटे थे..
मेरा चंपारण से बोधगया जाना  महात्मा गांधी का हस्तक्षेप ही था .क्योंकि बाद में मुझे बताया गया कि प्रस्तावक ने मुझे मुख्यालय  में रखने का प्रस्ताव दिया था किन्तु जिसे निर्णय लेना था, उनके शब्द थे-''इन्हें यहाँ रखने का प्रस्ताव क्यों  दे रहे हैं.ये तो टफ आफिसर हैं.इन्हें गया मे कीजिये..''
और इस तरह मैं गया का डी आई जी बना.
चंपारण से मैंने  अहिंसक पुलिसिंग का अपना अभियान तेज़ किया.दोनों विवाद-ग्रस्त पक्षों को प्रेरणा देकर अब तक  हज़ारों भूमि-विवाद के मुकदमे ख़त्म कराये..झूठे मुकदमों में उलझे हुए दोनों पक्षों को गले मिलाया...

और अंत में, भितिहरवा  आश्रम और कामनवेल्थ गेम मे खर्च हो रहे धन और निवेश की गई रूचि की तुलना करना उपलक्षणीय है..
तथास्तु !!!!!

----अरविंद पाण्डेय