रविवार, 7 अक्तूबर 2012

शैशव के ही सन्निकट स्वर्ग हँसता है



स्वप्न और विस्मृति  है  अपना जीवन.
है  सुदूर ,  आत्मा  का  मूल - निकेतन. 
तारक सा ज्योतित नभ से यहाँ उतरता.
आकर वसुधा पर,कुछ विस्मृति में रहता.

गरिमा के जलद-सदृश हम विचरण करते.
ईश्वर   के   शाश्वत  सन्निवास में  रहते.  
शैशव के  ही सन्निकट  स्वर्ग   हँसता  है.
तब,  सार्वभौम शासक  सा शिशु सजता है.

पर,जब यह शिशु, विकसित किशोर में होता.
तब, सघन कृष्ण - छाया  परिवेष्टित  होता.
यह,  किन्तु,  किया करता प्रकाश का दर्शन.
जब   होता   है   उन्मुक्त   हर्ष  का  वर्षण.

-- अरविंद पाण्डेय 

2 टिप्‍पणियां:

  1. यह, किन्तु, किया करता प्रकाश का दर्शन.
    जब होता है उन्मुक्त हर्ष का वर्षण.

    उज्ज्वल रचना ...!!
    मेरे ब्लॉग पर आने का बहुत आभार ...!!
    कृपया आते रहें और अपने विचार देते रहें ...!!

    जवाब देंहटाएं
  2. हर्ष बिन्दु परिलक्षित जीवन के,
    स्वप्न देख बैठे हम मन के।

    जवाब देंहटाएं

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