गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

स्नेह-रस-पूर्ण सिन्धु से नेत्र..


''तभी,सस्मित हो, मेरी ओर,
मुझे, देखा   माँ ने सस्नेह.'''
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स्वप्न :पृष्ठ ७  
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३१ 
नासिका पर शोभित छवि-धाम.
एक लोहित मणि की नव-कील.
राग-रंजित संध्या के संग,
रमण करता ज्यों सूर्य सलील.

३२ 
स्नेह-रस-पूर्ण सिन्धु से नेत्र,
फेकते थे अनुराग-तरंग.
निरंतर, मातृ-विरह से शुष्क,
भीगते थे मेरे सब अंग.

३३.
विश्व में विस्तृत सब सौन्दर्य,
हो गया था मानों साकार.
गात के रोम रोम से नित्य,
बह रही थी करुना की धार.

३४ 
सौम्य करता था मुख का क्षेत्र,
मूर्त होकर चिन्मय वेदान्त.
त्याग देते योगी भी योग,
देख पाते यदि वह मुख, कान्त.


३५ 
शांत देवी की स्नेहिल दृष्टि,
घूम जाती थी जब,जिस और.
बिखरता था प्रसाद सर्वत्र ,
सृष्टि में हो जाती थी भोर.

३६ 
तभी,सस्मित हो, मेरी ओर,
मुझे, देखा   माँ ने सस्नेह.
एक स्वर्गीय शक्ति से पूर्ण,
हो गई मेरी सारी देह.


क्रमशः 

-- अरविंद पाण्डेय