रविवार, 10 अप्रैल 2011

सप्तऋषि का प्रशांत आलोक.

स्वप्न :पृष्ठ २ 
६ 
धरा का करता था श्रृंगार,
चंद्रिका का सुन्दर विक्षेप.
यथा ,करती है इश्वर-भक्ति,
बुद्धि पर सत्त्व-वृत्ति का लेप.
७ 
निशा-मंडित अनंत-श्रृंगार 
कर रहे थे तारक के पुंज.
वासनामय अंतर के बीच,
खिल रहा हो ज्यों प्रभु-रति-कुञ्ज.
८ 
कर रहा था विलसित ईशान,
सप्तऋषि  का प्रशांत आलोक.
सप्त-सुर ज्यों हों तप में मग्न,
छोड़, सुख का दुरंत निर्मोक.

९ 
शांत रजनी में सभी मनुष्य ,
चाहते थे सुख का संयोग.
रसिक, रति में थे अति सलग्न ,
सिद्ध करते थे योगी, योग.

१० 
जागरण-रत कविवृन्द  अजस्र ,
काव्य-रस पीने में थे मस्त.
काममय मर्त्य प्रिया-परिधान,
कर रहे थे नित अस्तव्यस्त .

क्रमशः 

यह  पांच छंद-समूह, कल से प्रारंभित, मेरी स्वप्न शीर्षक  लंबी कविता का द्वितीय प्रक्रम है ..एक बार , स्वामी विवेकानन्द और अपने संबंधो के विषय में चर्चा करते हुए  भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस ने बताया था कि स्वामी विवेकानन्द सप्तर्षियों में से एक ऋषि थे जिन्होंने श्री भगवान के आदेश पर, मानव रूप में जन्म लिया  था.एवं स्वयं श्री रामकृष्ण परमहंस ईश्वरावतार थे..आज की कविता में सप्तर्षि का उल्लेख था और इससे सम्बंधित छंद लिखते समय स्वामी जी का स्मरण हुआ तो उन्ही का चित्र इस कविता के साथ संसक्त कर दिया है..

-- अरविंद पाण्डेय