सोमवार, 4 अप्रैल 2011

काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.


प्रथम-दिवस नवरात्र का.

ॐ 

विन्ध्यस्थां विन्ध्यनिलयां विन्ध्यपर्वतवासिनीं.
योगिनीं योगजननीं  चंडिकां प्रणमाम्यहं .

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जब  कण  कण अपने  कारण  में  मिलता  है .
अस्तित्व,  काल का भी,  जिस  क्षण हिलता है.
जब खंड खंड हो , देश, शेष  हो  जाता .
तब, जगदम्बा का मुक्त केश लहराता.

जब सूर्य, शून्य बनकर सत्ता-च्युत होता.
जब महाप्रलय-जल, कृष्ण-चरण को धोता.
जब द्वैत, दृश्य-द्रष्टा का  मिट जाता है.
तब, माँ के मुख पर मधुर हास्य  छाता है.

जब घन-प्रकाश, तम में परिणत होता है.
जब तम भी अपनी सत्ता खो देता है.
जब महाविष्णु भी निद्रित हो जाते हैं.
काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.

जब, सारी पृथ्वी,  जल में घुल जाती है.
जब , जल-सत्ता, पावक में मिल जाती है.
जब, पावक भी, पवमान स्वयं बनता है .
तब, महाप्रकृति का कमल-नयन खिलता है.

--  अरविंद पाण्डेय 

3 टिप्‍पणियां:

  1. परम आदरणीय सर , बहुत ही उत्कृष्ट सुंदर कविता हैं ...सादर

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  2. माता की वंदना के साथ नव संवत्सर की बेहतर शुरुआत ...
    नव संवत्सर की बहुत शुभकामनायें ..शुभ हो !

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  3. अद्भुत कविता, आपके कवित्व को प्रणाम।

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