शनिवार, 12 मार्च 2011

तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा ..



प्रकृति की विजिगीषा में आज,
है रमा नव-मानव का लक्ष्य .
मर्त्य-अमरत्व-भवन का एक,
 विलक्षण लगता है यह कक्ष .

प्रकृति का यह प्रदृश्य ब्रह्माण्ड.
कहाँ रखता है अपना अंत.
अल्प प्रश्नोत्तर - अज्ञ मनुष्य ,
प्रकृति-जय में है आशावंत !

उफनते सागर की उत्ताल 
तरंगों का यह भीषण खेल.
रोक सकता है क्या यह मूढ़ 
मनुज अपनी सब शक्ति उड़ेल.

सतत विपरीत क्रिया से त्रस्त
प्रकृति जब होती है अति-क्रुद्ध.
आज की प्रकृति-विजयिनी शक्ति 
भूल जाता है नर-उद्द्बुध.
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यह कविता मैंने २/७/१९७९ को लिखी थी..
जब मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी था ..
एवं यह मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ ''में प्रकाशित है तथा मुझे अत्यंत प्रिय भी है.
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आज जापान, मानवता की वैज्ञानिक-प्रज्ञा के  सर्वश्रेष्ठ शिखर के रूप में सार्वभौम स्वीकृति प्राप्त कर चुका है..किन्तु वही  जापान, पृथ्वी  के चित्त में पल रहे भीषण क्रोध , महासागर की शीतल तरंगो के संभावित तप्त कोप  का पूर्वानुमान नहीं कर पाया और क्रुद्ध धरती एवं कुपित महासागर के समक्ष उन नगरों और नगरवासियों को दया की भिक्षा माँगने का अवसर भी नहीं मिल पाया जो उस क्रोध के प्रत्यक्ष कारण नहीं थे.
यह परिणाम हमें दुःख के  महासागर में डुबोता ही है मगर डुबोते हुए भी हमें '' सार्वभौम समानुभूति ''  एवं '' सार्वभौम संवेदनशीलता ''   ( Empathy ) का उपदेश भी दे रहा है .. 
समानुभूति सिर्फ मनुष्य या अन्य जीवित प्राणियों से ही नहीं अपितु समस्त प्रकृति से भी ..
 प्रकृति के उन क्षुद्र अवयवों से भी   जिनकी हम  अपने कथित विकास की प्रक्रिया को पूरा करने में उपेक्षा करते रहे है..
प्रकृति को भी कष्ट होता है जब हम उससे दान न मांग कर बलपूर्वक कुछ लेना चाहते हैं..
जिस महासागर ने अपनी प्रकुपित तरंगों से जापान को आहत किया है उसी  महासागर ने देह धारणकर, श्री राम के समक्ष प्रकट होकर , अपने वक्ष पर सेतु - निर्माण की स्वीकृति दी थी..
हम भारत के लोग सम्पूर्ण प्रकृति को चेतन देखते रहें हैं..ये दृष्टि अगर लुप्त होगी तो इसी दृष्टि को पुनः प्राप्त करने के लिए मानवता को भीषण त्रासदी से गुज़रना ना होगा..
मनुष्य के प्रति मनुष्य का संवेदनहीन होकर व्यवहार करना , कर्ता के लिए  संभव है, देर से प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न करे परन्तु महाप्रकृति,अपने  विरूद्ध प्रकट संवेदनहीनता के परिणाम को विलंबित नहीं करेगी..
यह दुखद परिणाम, हमें इसी  संवेदनहीनता के कारण देखना पडा है जिससे बचने का  व्यपदेश उन तथागत बुद्ध ने किया था जिनकी अहिंसा की प्रबल तरंगों के सामने तथा जिनके विकसित कमल सदृश नेत्रों से निकलती हुई करुणा-सलिल-धारा में अभिषेक कर , खद्गोत्थित-हस्त अंगुलिमाल उनके चरणों पर गिर पडा था ..

नास्त्रादेमस ने कहा था जापान के बारे में कुछ .. 
उसका उल्लेख न करते हुए हम सभी परमात्मा से प्रार्थना करे उस सुन्दर, सुरभित, सुललित, सुपुष्पित , सुसलिल पृथ्वी की रक्षा के लिए जो अनंत श्री भगवान् के अवतार के समय उनके श्री चरणों के स्पर्श से  धन्य हुआ करती है ..
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प्रार्थना 
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तेरे लिए तो मौत-जिंदगी है बराबर.
इंसान के लिए मगर है ज़िन्दगी हसीन.
वैसे भी, जान ले रहा इंसान की इंसान.
तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा

   ----अरविंद पाण्डेय

17 टिप्‍पणियां:

  1. इस महा प्राक्रितीक आपदा के समय हमारी संवेदना भी जापान के साथ हैं .........

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  2. One has seen what has happened in Japan where over thousand of innocent People have lost their lives yesterday overnight due to severe earthquake. Sumani had threatened sixteen countries more and New Zealand is also no exception to them It can safely be attributed due to natural calamities though what a great tragedy we are facing in this space age when man has been a threat to another, chastity of women are at stake, loots and corruptions are at rampant, people are drifting way from moral and religious values- all these can be viewed and attributed also as one of important factor for such an atrophy .Ecological imbalance can been seen as another factor leading to such serous threat. Let us all rise and pray to God to help save the race of mankind and bestow His love on all of us who are His children! We will be failing in our duties if we don’t express our solidarities with the Japanese as whole and others at this crucial hours and condole death of all those who lost their precious lives. Let us convey our heartfelt condolences to the People of Japan & other countries who lost their nearest and dearest one due to this natural calamity! It’s high time for all of us to join to pray to Lord Buddha and seek His bliss for well-being of all living-being of this universe.

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  3. जापान में जो कुछ घटित हुआ आम आदमी की समझ से परे है. लगभग एक हज़ार लोगों की जीवन लीला समाप्त हो गई और जो संपत्ति एवं अधो संरचना की क्षति हुई सो अलग. मानवता की रक्षा करने वाला और उसे प्यार करने वाला benevolent god , कहाँ है, हमें उसकी तलाश है . पाण्डेय जी आपकी कविता आज भी प्रासंगिक है क्योंकि मानव संवेदना से ओतप्रोत है !

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  4. आपकी यह रचना दिल को छू गई...

    क्या आपकी पुस्तक "स्वप्न और यथार्थ" मुझे मिल सकती है? या फ़िर यह कहाँ मिलेगी... उसका एड्रेस मिल जाये तो बड़ी मेहेरबानी होगी...

    जय हिंद...

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  5. बहुत अच्छी रचना। हमें परकृति के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए।

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  6. उफनते सागर की उत्ताल
    तरंगों का यह भीषण खेल.
    रोक सकता है क्या यह मूढ़
    मनुज अपनी सब शक्ति उड़ेल.

    मर्मस्पर्शी रचना है| क्रूर नियति का वीभत्स खिलवाड़ ...!
    विवशता और घेर लेती है मन को .

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  7. प्राकृतिक कहर के दिल दहलाने वाले दृश्य ...कि इन्सान अब भी कुछ सबक ले सके तो ...!

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  8. उफनते सागर की उत्ताल
    तरंगों का यह भीषण खेल.
    रोक सकता है क्या यह मूढ़
    मनुज अपनी सब शक्ति उड़ेल.

    बहुत सार्थक रचना ...प्रकृति से खिलवाड़ करता इंसान खुद प्रकृति के हाथ का खिलौना बन जाता है ..

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  9. प्रकृति की प्रकृति ही न समझ पाये हम नर। 79 में लिखी कविता आज के लिये भी सत्य है।

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  10. मर्मस्पर्शी रचना.....
    हम अपनी गलतियों से सबक नहीं लेंगे तो प्रकृति ही हमें सज़ा देती रहेगी...

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  11. घटना तो दुखद है ही...
    मर्म स्पर्शी रचना...

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  12. जापान की प्राकृतिक त्रासदी ने यह जाता दिया है की हम ब्रह्माण्ड और प्रकृति को नहीं समझ पाए है और ईश्वर के शरण में जाना ही मानव जाति के लिए पर्याय है.....प्रकृति के नियमों के साथ खिलवाड़ करना बंद करना होगा और प्राकृतिक संसाधनों का सही उपयोग करना होगा...हम सचमुच उस परमेश्वर की सत्ता के सामने बेबस हैं....

    वैसे भी, जान ले रहा इंसान की इंसान.
    तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा

    बहुत ही मर्मज्ञ प्रार्थना है

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  13. निरीह फ़ुकुशिमा के विनाश का कारुणिक दृश्य जब दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे थे तब आपकी यह ३१ साल पूर्व रची गइ क्रान्त-दर्शी कविता मुज्हे अश्रुपूरित नेत्रो से भी स्मृति के संस्कारो से उद्बुद्ध हो कर साक्षात दिखाई दे रही थी । आपके करुनार्द्र हृदय से पिघल कर शेर के रूप मे निकल पडे अल्फ़ाज़् खुदा ज़रूर सुनेगा और इन्सान को उसकी कायनात की इज़्ज़त करने की अकल देगा। आमीन ।

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