शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

वास्तव में,मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था:माता मैथिली:मैं नारी हूँ :3


श्री दुर्गा पूजा के महापर्व पर विश्व की सभी शक्ति-स्वरूपिणी नारियों को समर्पित.3
६ .
मैंने अपनी निजता का निर्भय किया दान.
प्रज्ज्वलित-अग्नि में कर प्रवेश, मैं थी अम्लान.

मैं नहीं चाहती थी निन्दित रघुनन्दन हों.
था स्वप्न - राम का सार्वभौम अभिनन्दन हो.

इसलिए, सहज निर्वासन था स्वीकार मुझे.
अन्यथा, राम क्या करते अस्वीकार मुझे?
७.
मैंने तमसा-तट पर लक्ष्मण से कहा -तात !
श्री राम बनें आदर्श चक्रवर्ती सम्राट .

वे करें प्रजा-पोषण सोदर भाई समान.
जीवन उनका, यश,धर्म,कीर्ति का हो निधान.

कहना उनसे- मैथिली नहीं हैं  व्यथा-विद्ध.
बस एक कामना, राघव हों अतुलित प्रसिद्द.
७.
श्री राम-राज्य की  नारी भी थी मैं, प्रबुद्ध.
मैंने चाहा था- रावण से हो महायुद्ध.

राक्षसी हिंस्र-संस्कृति का जिससे हो विनाश.
बंधुता तथा समता,स्वतन्त्रता का प्रकाश-

प्रत्येक मनुज के अंतर में उद्भासित हो.
वसुधा, करूणा से कुसुमित और सुवासित हो..
८.
यदि राम-सभा में जा,मैं करती अभिवेदन.
तब निश्चित ही  निरस्त हो जाता निर्वासन.
श्री राम और मैं करते वैयक्तिक-विलास.
पर उस आदर्श-परिस्थिति का रुकता विकास.

जिसमें शासक त्यागा करते हैं पद अपना .
पर,जो आसक्त पदों में,उनसे क्या कहना !
९.

वास्तव में, मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था.
क्या कहूं ,राज्य का जन-समुदाय अभागा था.

पुट-पाक सदृश वेदना राम को बींध गई.
जीवन भर मैं श्री राम-विरह में दग्ध हुई.

इस अग्नि-सिधु मंथन से बस यह अमृत मिला.
राघव के अक्षर यश का सुरभित पुष्प खिला.
१०.
मैं वही जबाला, जिसने नहीं विवाह किया. 
पर, सत्यकाम जाबाल-पुत्र को जन्म दिया.

प्रारंभ किया जिसने परम्परा गुरुकुल में
है पिता-नाम अनिवार्य नहीं नामांकन में 

गरिमामय नारी -स्वतन्त्रता का प्रथम घोष
था समय एक , मैं मानी जाती थी अदोष
८ . 
मैं वही अपाला , कुष्ठ -रोग से जो पीड़ित.
थी देह नही रमणीय , पुरूष सब थे परिचित.

सौन्दर्य नहीं था छलक रहा मुझसे बाहर
पर, प्रज्ञा का सागर लहराता था अन्दर

मेरे मंत्रों से प्रथम वेद है आलोकित
मेधा-बल से मैनें समाज को किया विजित..
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स्त्री के प्रति भारत की विलक्षण, शाश्वत और यथार्थवादी दृष्टि के विरोध में, बुद्धि-दरिद्रों द्वारा, माता मैथिली के निर्वासन का उदाहरण दिया जाता है..किन्तु यह उदाहरण उनके द्वारा ही दिया जाता है  जिन्होंने एक बार भी वाल्मीकीय रामायण का पारायण नहीं किया.वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के पैंतालीसवें सर्ग के सत्रहवें श्लोक में श्री राम का लक्ष्मण को दिया गया आदेश अंकित है--
गंगायास्तु परे पारे वाल्मीकेस्तु महात्मनः .
आश्रमो दिव्यसंकाशः तमसातीरमाश्रितः 
श्री राम ने लक्ष्मण से कहा था -'' गंगा के पार स्थित तमसा नदी के तट पर, महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है..लक्ष्मण ! तुम कल प्रातः सीता को उसी आश्रम के निकट पहुचाकर वापस आना.''
 अर्थात श्री सीता को निर्जन वन में छोड़ने का आदेश श्री राम का नहीं था.
इसी तरह,जब श्री मैथिली को वाल्मीकि आश्रम के निकट ले जाकर निर्वासन की राजाज्ञा लक्ष्मण द्वारा सुनाई गई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा-
यच्च ते वचनीयम स्यादपवादः समुत्थितः 
मया च परिहर्तव्यम त्वम्  हि मे परमा गतिः
अर्थात श्री मैथिली ने लक्ष्मण से श्री राम के लिए अपना सन्देश भेजा था- ''जनसमुदाय के बीच जो आपकी निंदा कुछ घटनाओं के कारण हो रही है उसे समाप्त करना मेरा भी कर्तव्य है..आप धर्मपूर्वक जनसमुदाय का पालन वैसे ही कीजिये जैसे अपने सगे भाइयों का करते हैं.मुझे आपके धर्मानुकूल शासन की चिंता है , अपने शरीर की नहीं. ''
इस प्रकार श्री मैथिली ने निर्वासन स्वीकार करके, वास्तव में, राज्य-हित में अपना साम्राज्ञी का पद त्यागा था.
मानव-मन की इस सर्वोत्कृष्ट अवस्था को हृदयंगम कर पाना लोभ,मोह,मद से कलुषित चित्त के लिए संभव नहीं.
श्री मैथिली द्वारा साम्राज्ञी-पद का स्वेच्छया किये गए त्याग की परम्परा का ही निर्वाह आज भी तब होता है जब कोई लाल बहादुर शास्त्री या कोई नीतीश कुमार  किसी रेल दुर्घटना के बाद नैतिकता के वशीभूत, निजी रूप से दोषी न होते हुए भी, पद से त्यागपत्र देता है.

 ..पश्चिम में , महान नारीवादी चिन्तिका - सिमोन द बउआर एवं अन्यों द्वारा प्रारंभ किया गया नारी मुक्ति आन्दोलन , पश्चिमी समाज के लिए पूर्णतः हानिकारक रहा। .क्योंकि यह प्रतिक्रया में, पुरूष - द्वेष के साथ , प्रारंभ किया गया था ..
प्रतिक्रया या द्वेष में प्रारंभ किया गया कोई भी कार्य अपने परिणाम के साथ अप्रिय अंश भी लेकर आता है .. 
वही हुआ..
पश्चिमी समाज में , नारी-वादी स्त्रियों ने, पुरूष द्वेष में ,पुरुषों से बचने के लिए, ऐसी विकृतियों को आत्मसात् किया जिसनें वहाँ की परिवार -प्रणाली का सर्वनाश कर दिया ।
माता , पिताके प्रारम्भिक प्रेम और वात्सल्य से वंचित युवा ,
सहजात मनोवृत्तियों के वशीभूत और मनोविकृतियों से पीड़ित स्त्री -पुरूष,
और खंडित परिवारों का विशाल खँडहर ॥
परिणाम यह भी हुआ कि भारत का कोई संत वहाँ जाए तो लाखों की संख्या में स्त्री -पुरूष उसके अनुयायी बनने के लिए तैयार , समर्पित ॥
आज सारा पश्चिम भारत की ओर आशा के साथ देख रहा कि भारत, उसके सामाजिक -अस्तित्व की रक्षा, अपने पुरातन किंतु चिर-नवीन संस्कारों के साथ कर पायेगा !
हम भारत के लोगों ने कभी किसी विषय पर खंडित अथवा अपूर्ण दृष्टि के साथ विचार नहीं किया ।
स्त्री - स्वतन्त्रता हमारे यहाँ जितनी वैज्ञानिकता के साथ उपलब्ध थी , वैसी कहीं नही थी, न है ।
इन कविताओं में मैंने भारत की उन  महान स्त्रियों की स्तुति की है जिन्होनें अपनी प्रज्ञा के बल से स्त्री - मूलक सामाजिक क्रान्ति का नेतृत्व किया था जो आज की स्त्रियों के लिए भी अति कठिन है ।
आज ऋग्वेद के आकार लेने के हजारों साल बाद , भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि किसी बच्चे का विद्यालय में नामांकन कराते समय , यह अनिवार्य नही होगा कि उसके पिता का नाम बताया जाय ।
विद्यालय में यदि सिर्फ़ माता अपना ही नाम बताती है तो भी नामांकन किया जाएगा।
इस निर्णय को हम ऋग्वेद में वर्णित माता जबाला की कथा के प्रकाश में देखें तो लगेगा कि माता जबाला नें अपने आत्मबल से जो कार्य उस समय अकेले किया था उस कार्य को कराने के लिए आज सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पडा ।
माता जबाला नें अपने पुत्र जाबाल को को गुरुकुल में नामांकन के लिए भेजा ।
वहा कुलपति ने जाबाल से पिता का नाम पूछा और कहा कि पिता के नाम के साथ ही नामांकन होगा ।
जाबाल को पिता का नाम माँ ने कभी बताया नही था न ही वह अपने पिता से कभी मिला था .
उदास जाबाल माँ के पास आया और सारी बातें बताईं ..
माँ ने कहा कि तेरे पिता का नाम मैं भी नहीं जानती । मैं आश्रम में रहती थी । विवाह नही किया ।
किंतु प्रेम - पूर्ण स्थिति में किस ऋषि से तेरा जन्म हुआ , नही मालूम ।
तू जा गुरुकुल और आचार्य से कह दे कि मेरी माता का नाम जबाला है और मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है .वे मंत्रद्रष्टा ऋषि हैं । किस ऋषि से मेरा जन्म हुआ , यह उन्हें भी नही मालूम .
बालक जाबाल जाता है गुरुकुल माँ के वचन दुहराता है वहाँ आचार्य से।
कुलपति, सत्यकाम जाबाल और माता जबाला की सत्यनिष्ठा का सम्मान करते हैं और जाबाल का नामांकन गुरुकुल में हो जाता है ।
इसी प्रकार माता अपाला कुष्ठ -रोग से पीड़ित थीं । किंतु, उन्होंने अपने प्रग्याबल से उस रोग को समाप्त किया । और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि बनीं ।
समस्त पुरुषों के लिए सम्माननीय ।
भारतीय - संस्कृति में स्त्री-स्वातंत्र्य सार्वभौम रूप से उपलब्ध किए जाने का संकल्प है ।
किंतु यह स्वातंत्र्य अपने इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति के लिए नही अपितु सत्यकाम जाबाल जैसा महान पुत्र उत्पन्न कराने के उद्देश्य से संकल्पित है ।
स्त्री अपने प्रग्याबल से समाज को सशक्त, सुबुद्ध , सुंदर , सुनम्र बना सकती हैं ।
स्त्री की सृष्टि ही इस हेतु हुई ।
किंतु ऐसा करने के लिए स्त्री को स्वयं प्रग्यावती , सशक्त , सुबुद्ध और अंतःकरण से सुंदर बनना होगा ।
सौन्दर्य स्त्री की नियति है --
पुरूष को वश में करने के लिए और उससे समाज की सार्वभौम सेवा कराने के लिए ।
पुरूष के समस्त कर्मों की प्रेरक स्त्री है --
स्त्री है तो पुरूष है --
स्त्री - पुरूष हैं तो समाज और प्रकृति सुरक्षित हैं ।
समस्त प्रकृति की रक्षा के लिए स्त्री का सुन्दरीकरण ,सशक्तीकरण और समरस स्त्री-पुरूष संबंधों का विकास आवश्यक है.

----अरविंद पाण्डेय

15 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर सकारात्मक लेख एवं कविता |

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  2. The Poem is a very well composed and it’s worth reading times and again. How beautifully, the Poem has been composed proves beyond any doubt the wisdom & farsightedness of the Poet! I am really moved to read it thrice and all the times, I could find some newness in it. Aravind Ji is a man of letters who deserves all praise and our hearty congratulations for such master piece commendable work.

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  3. अरविन्द जी कुछ कहने के लिए शब्द नहीं है परन्तु इतना कहे बिना रहा भी नहीं जाता ...
    एह लिखने वाले कलम क्यूँ बनाई ....
    अगर कलम बनाई तो शियाही क्यूँ दिखलाई
    और अगर शियाही दिखलाई तो हमे....
    फिर अरविन्द जी की याद आयी .....

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  4. Arvind ji ke antar se nirantar aisi amrit varsha hoti rahe, jisme hum anantar bhigate rahen... Aisi Kamna hai..

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  5. देवी सीता के निर्वासन-प्रसंग से कई भ्रांतियां दूर हुई ...
    स्त्रियों की स्वतन्त्रता पौराणिक काल में भी मान्य थी ...कि उन्हें इसके लिए अलग से कोई स्वतंत्रता अभियान चलाने की आवशयकता नहीं पड़ी ...
    अच्छी जानकारी ...
    आभार ...!

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  6. itna aacha likha hai sir ki mere paas koi sabad nahi hain bolne ko...
    kamal ka likha hai....
    sita nirvasan k bare me kafi kuch naya bataya aapne...
    sir apke bare me jitna likha jae wo kaam hai...
    aap humari ummidon se kahin badhk hain...
    bilkul 200% perfect or sachhe insaan...
    apko salam...

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  7. The "Sita" side of the story cud not have been more aptly portrayed. A wonderful read.

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  8. Western countries ka analysis bahut accha kiya hai. Kripya bharat ko westernization kee daur se door rakhane ke bhee kuch intjam keejeeye.
    Kyoki aaj bharat ke youva love marriage ko theek kahte hain kal mingal relation ko theek kahenge parson divorce ko theek kahenge. Aur uske baad jaise yahan high school ke 60% bacche Single parents ke saath rahate hai. India men bhee hoga.

    Indians pahante naheen hain woh kya hain? Kitne upper hai? eseeliye westernise ho rahe hai.

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  9. Pehli baar kuch aisa padh rahi hoon
    jaise kisi ne Sita ki anttar ko padha aur jana hai

    Naari maan ko padna itna assan bhi toh nahi...
    Aur na aisa hai ki
    Aap ne apni Maa ko samjha Behen ko samjha lekin ardhangini ko samjh nahi paye.....
    Puri kavita aur pura lekh bahut umdaa tarike se likha gaya hai!!!

    Sita ji ka pyaar .. unka tayaag... unke sapne .... unki pratigya .......

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