मंगलवार, 16 सितंबर 2008

जब लोकतंत्र गल जाता है..

यह लम्बी कविता उन शहीदों
के सम्मान हेतु प्रस्तुत है जो नही
जानते थे की क्रुद्घ कोशीका क्रंदन
उन पर मृत्यु संकट उत्पन्न करने
वाला है। जो अनजाने में ही एक
भयावह रात में, मुझ जैसे सरकारी
सेवकों के अपराध के कारण, कोशी
के आंसुओं के समुद्र में, सदा के लिए
सो गए।
यह काव्य उन देश-भक्तों के सम्मान में भी
प्रस्तुत है जो बिहार में नहीं है पर
हमारे संकट मेंहमारे साथ खड़े है ---
मैं ऐसे सभी बिहार भक्तो को सैल्यूट
करता हूँ जो समूह बना कर, बचे हुए
के लिए दिन रात काम कर रहे है
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बिखरी कोशी बिखरा बिहार
फिर भी, मन में सपने हजार
१-
हो नदी या कि नारी, उर्मिल
चाहेगी बिखरे नहीं सलिल
कोई तटबन्ध उसे रोकें
हो अनियंत्रित , कोई टोके
कोशी तो करती थी पुकार
बांधे कोई, दे उसे प्यार
२-
पर कही, किसी ने नहीं गुना
कोशी का क्रन्दन नहीं सुना
नौकरशाहों का था निर्णय
हो शान्ति या कि फिर मचे प्रलय
मजदूरी नहीं बढ़ाएगे
जन में जल-प्रलय मचाएगें
३-
खण्डित कुशहा तटबन्ध हुआ
कोशी को क्रोध प्रचड हुआ
आंसू, लहरों में बदल गए
जलमग्न ग्राम, वन, नगर हुए
जब नारी, नदी कुपित होती
सारे समाज की क्षति होती
४-
मन में दानव सा लोभ लिए
मानव ने कैसे पाप किए
पानी बनकर ईमान बहा
कहने को ना कुछ शेष रहा
उन्मत हंसी नौकरशाही
गलकर बह गई लोकशाही
५-
कहने को है मजबूत तन्त्र
कोई कुछ करने को स्वतन्त्र
बाहर से हस्तक्षेप नहीं
कर्तव्य-कर्म में क्षेप नहीं
पर जनगण का टूटा सपना
कानून हुआ अपना अपना
६-
व्याकुल कोशी है दौड़ रही
रुकने का ठौर तलाश रही
जब नई न कोई राह मिली
तो गांव, नगर की ओर चली
भटके लाखों जन द्वार द्वार
सपने बिखरे है तार तार
७-
घर द्वार बहा, परिवार बहा
सपनों का भी संसार बहा
कोई अनाथ शिशु बिलख रहा
बूढा भी कोई फफक रहा
माताएं पुत्र-विहीन हुई
वत्सलता ममता दीन हुई
८-
फिर भी लहरों को चीर चीर
जीने की चाह लिए , अधीर
पल पल बरसाते नयन-नीर
अन्तर में धारे गहनपीर
बचकर आया जो बिलख रहा
खुद बचा, मगर परिवार बहा
९-
कंधे पर बकरी को डाले
बच्चे को लटका लिया गले
पानी में पौरुष-अग्नि जला
जलमग्न भूमि पर बढ़ा चला
मानव का जय-अभियान धन्य
मानव, स्रष्टा का सुत अनन्य
१०
गिरते को फिर से लिया थाम
पूछा ना मजहब, जाति, नाम
सोदर तो नहीं, मगर, बढकर
रोते भाई का हाथ पकड़
गदगद हो गले लगाते है
हम उनको शीश नवाते है
११
तटबन्ध नहीं टूटा था यह
भगवान् नहीं रुठा था यह
कोशी का दोष नहीं कोई
किस्मत थी कहीं नहीं सोई
उनका ही है यह घोर पाप
जो करते अब मिथ्या-विलाप
१२
अच्छा ! न अभी कुछ बोलेंगे
पर, कभी तो मुह को खोलेंगे
जो शत्रु बना मानव का, जल
किसके पापों का था प्रतिफल
देना होगा उत्तर इसका
वह कौन ? पाप था यह किसका
१३
जब बधने को व्याकुल कोशी
बजती थी तब उनकी वंशी
मन बहलाते थे चाटुकार
कहते थे- है शुभ समाचार
एहसास हो रहा था सुखप्रद
मौसम लगता सब ओर सुखद
१४-
जब जन-सेवा का ध्यान न हो,
कर्तव्यों का खुद भान न हो,
नौकर, मालिक की चाल चले
नौकरशाही फूले व फले
तब लोकतंत्र गल जाता है
नौकर, मालिक बन जाता है
१५.
है धर्म-प्रवर्तक लोकतंत्र
सत्कर्म-प्रवर्तक लोकतंत्र
बन्धुता- प्रवर्तक लोकतंत्र
समता का रक्षक लोकतंत्र
जब लोकतंत्र गल जाता है
नौकर, मालिक बन जाता है